Saturday 30 July 2011

डर गया यारोँ

कुछ पल लोगोँ को न चाहते हुए भी याद करना परता है।ऐसा ही मेरे साथ हुआ एक घटना है जिसे मैँ चाहुँ भी तो भुला नहीँ सकता,हुआ यूँ की मेरा कलकत्ता मेँ कांसलिँग था मेरे मन का सारा ट्रेड भरता जा रहा था मेरा हर्ट बीट बिल्कुल डायरेक्टली प्रोपोशनल था 4 टाईम्स आफ नम्बर आफ भेकेन्ट सीट।मैँ जितना उस दिन डर रहा था शायद कोई मौत के करीब होने पर भी न डरा होगा क्योँकि मेरे कैरियर से जुरी हुई है मेरे माँ पापा की उम्मीदेँ और उनके जिवन का सबसे बरा सपना।अब मेरा नम्बर आने वाला था मैँने रामजी का नाम लिया और बस उनसे एक सीट के लिए फरियाद किया जो उन्होँने पुरा किया।ये डर मैँ कभी नहीँ भुल सकता यारोँ आज मैँ जान गया कि डर के आगे जीत है।



--"रमन पाठक"

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